खंड 2.6: अन्तर्मत विवाह: सनातनी जनों हेतु सन्देश

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यह लेख अंतर-धार्मिक विवाह के सम्बन्ध में सनातनी (हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध) लोगों तक संदेश पहुँचाने के लिए लिखा गया है।

अपने बच्चों को अपने धर्म का पाठ तो सभी पढ़ाते हैं, किंतु अन्य धर्मों के लोगो के साथ मेल-जोल के व्यावहारिक पहलुओं के बारे में विरले ही अभिभावक बताते होंगे, एक बाल विहार (साप्ताहिक विद्यालय) के अध्यक्ष के तौर पर हमारे लेखक की भी यही पीड़ा है। पश्चिमी दुनिया में, दूसरे धर्मों के युवक युवतियों से सम्बन्ध एक सामान्य बात है, और यह आश्चर्यजनक नहीं है कि हिन्दू, जैन, सिख और बौद्ध समुदाय की अगली पीढ़ी में से एक-तिहाई युवा अन्य धर्मों (ईसाई, मुस्लिम एवं यहूदी) में शादी करते हैं। अधिकांश घटनाओं में जहाँ तक अंतर-धार्मिक विवाह की बात है, विवाह का निर्णय सनातनी नवयुवक या युवती अपने अभिभावकों के परामर्श के बिना करते हैं।

ऐसी शादियों में धार्मिक विभिन्नताएं एक बड़ा विषय है और सबसे पहली रुकावट है धर्म परिवर्तन। अपने जीवन साथी के लिए अपना और अपने होने वाले बच्चों का धर्म बदलना एक मुश्किल भरा फैसला है। यही कारण है कि अंतर-धार्मिक विवाह में तलाक (विवाह को निषेध करना), सम्मत विवाह की तुलना में, ज्यादा होते हैं। इन्हीं कारणों से एक अंतर-धार्मिक सम्बन्ध में जाने से पहले उसकी संभावित जटिलताओं को समझना युवाओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है।

हालाँकि एक दूसरे के धर्मों का सम्मान अंतर-धार्मिक सम्बन्धों के प्रगाढ़ होने की पहली सीढ़ी है, किंतु मूलभूत धार्मिक भिन्नताएं इन संबंधों की राह में बड़ा रोड़ा बन जाती हैं। सनातनी लोगों की वसुधैव कुटुंबकम की मान्यता एवं सहिष्णु सोच धर्म को सर्वशक्तिमान को प्राप्त करने माध्यम भर मानती है, किंतु अन्य मत ऐसा नहीं मानते। ईसाई, मुस्लिम एवं यहूदी मत के अनुयायी अभी भी अपने एक मात्र ईश्वर के मत से ग्रसित हैं एवं उनके ग्रन्थ भी बहुदेववादी सोच को निषेध मानते हैं। उदाहरण के तौर पर जहाँ हिन्दू मानते हैं कि सर्वशक्तिमान को किसी भी रूप में पूजा जा सकता है (सगुन ब्रह्म), यह परंपरा ईसाई, मुस्लिम या यहूदी धर्म में वर्जित है तथा मूर्ति पूजा को घोर पाप माना गया है। (Section 2.12)

एक और उदाहरण से समझते हैं, इस्लाम में काफ़िर (अल्लाह को न मानने वाला) से निकाह (विवाह का अनुबंध) वर्जित हैं और ऐसी स्थिति में मुस्लिम लड़के या लड़की से विवाह करने के लिए इस्लाम अपना कर कसम उठाना ही एकमात्र विकल्प बचता है, इस कसम के मुताबिक़ दुनिया में केवल एक ही भगवान हैं “अल्लाह” और पैगम्बर मुहम्मद उनके आखिरी पैग़म्बर हैं। कुछ ऐसा ही ईसाई धर्म में देखा गया है, यहाँ भी विवाह पूर्व धर्म परिवर्तन और चर्च में बपतिस्मा (पानी में डुबकी लगा कर ईसाई बनाना) का घोर दवाब रहता है। ऐसे हालात में एक अज्ञानी सनातनी को अपने सालों पुराने प्रेम सम्बन्ध को बचाने के लिए तथा चाहे-अनचाहे धर्म परिवर्तन जैसी शर्तों को स्वीकार करना पड़ता है।

शादी के लिए धर्म परिवर्तन को एक समारोह मात्र समझना बड़ी भूल होगी, अपितु यह रीति आपके और आपके आने वाले बच्चों के जीवन की दशा और दिशा तय करता है। यह आस्था परिवर्तन केवल ससुराल वालो की इच्छा पूर्ति मात्र तक नहीं रह जाता बल्कि अब आप वचनबद्ध हैं आपके नए धर्म के लिए। आपकी वचनबद्धता की रक्षा आपके नए परिवार का हर व्यक्ति करेगा। शाहदाह की क़सम उठाने के बाद किसी भी देवी या देवता की तस्वीर या मूर्ति की पूजा करना उसको अल्लाह के समकक्ष मानना अब पाप होगा। किसी भी मृत या जीवित व्यक्ति की पूजा या उसके समक्ष प्रार्थना भी एक पाप होगा। यहाँ तक कि तलाक होने के बाद भी अपने पुराने धर्म में लौटने का फैसला कुछ मध्य-पूर्व के देशों के कानून में आपको मृत्युदंड के निकट पहुँचा सकता है। (मोहम्मद ने कहा, “जो कोई भी अपने इस्लामी धर्म को बदलता है, उसे मार डालो।” [बुखारी 9:84:57]) अतः धर्म परिवर्तन के बाद वापसी बहुत मुश्किल ही होगी, इसके लिए तैयार रहना चाहिए।

अंतर-धार्मिक संबंधों में समस्याएं ज्यादातर संतानोत्पत्ति के बाद आती है। अब्राहम-पंथियों (वे लोग जो प्राचीन यहूदी धर्म और अब्राहम में आस्था रखते हैं) के अनुसार, अंतर-धार्मिक दम्पत्तियों की संतान को केवल उनके ही धर्मग्रन्थ को मानना होगा। ठीक इसी प्रकार, एक मुस्लिम साथी से शादी के बाद मुस्लिम समाज आपसे आपके बच्चे की सुन्नत करवाने और एक अरबी नाम रखने की तीव्र अपेक्षा करेगा। एक यहूदी साथी शायद आपसे धर्म परिवर्तन की अपेक्षा न रखे परन्तु होने वाली संतान को यहूदी बनाने के लिए उसका खतना जरूर कराएगा। विवाह के बाद बहुत संभव है कि आप संतान को मंदिर में दर्शन करवाने ले जाना चाहें और आपका ईसाई साथी आपको और बच्चे को हर रविवार गिरजाघर ले जाने की ज़िद करे। एक और बड़ी समस्या इन संबंधों में मुँह बाये खड़ी होती है और वह है “परिवार नियोजन”। यहाँ पर लेखक ने एक अहमदाबादी युवती का ज़िक्र किया है जो पांच बच्चों की मां इसलिए बन गई क्योंकि उसके ईसाई पति को परिवार नियोजन में विश्वास नहीं था। क्या उस युवती ने अपने प्रेम संबंधों के प्रारंभिक दिनों में इस सच्चाई की कल्पना भी की होगी?

कुछ प्रेमी विवाह को एक धर्म से इतर एक पारलौकिक सम्बन्ध मानते हैं । परन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ धर्मगुरु और समुदाय ऐसे संबंधों में अपने धर्म के विस्तार और प्रसार का अवसर खोजते हैं। ठीक ऐसी ही स्थिति बोस्टन में देखने को मिली जहाँ एक मस्जिद के इमाम ने बिना शहादा और निकाह के एक विवाह को अवैध करार दे दिया और कोई भी मुस्लिम सगा सम्बन्धी उस विवाह में उपस्थित नहीं हुआ। ऐसा बहुतायत देखा गया है कि किसी भी हिन्दू-मुस्लिम विवाह में जहाँ हिन्दू और मुस्लिम दोनों के धर्मानुसार विवाह होता है, वहां सबसे पहले मुस्लिम रीति से हिन्दू साथी का धर्मान्तरण किया जाता है। उसके बाद निकाह पढ़ा जाता है तदुपरांत हिन्दू धर्मानुसार विवाह संपन्न होता है।

ऐसी ही कुछ परिस्थितियां एक ईसाई साथी से विवाह करने पर बनती हैं, यहाँ सबसे पहले आपको ईसाई धर्म में आस्था की कसम आवश्यक है। अब यहाँ पर विचारणीय और तार्किक प्रश्न यह है कि एक व्यक्ति का धर्मान्तरण करके या कहें कि उसे मुसलमान या ईसाई बनाकर, हिन्दू रीति रिवाज़ से उसका विवाह एक दिखावा मात्र रह जायेगा क्योंकि धर्मान्तरण के पश्चात् वह विवाह एक मुस्लिम-मुस्लिम या ईसाई-ईसाई के बीच होगा जो कि एक हिन्दू पुजारी द्वारा संपन्न किया जायेगा। अब ऐसे विवाह में क्या हिंदुओं को इसका भान है कि वो क्यों ख़ुशी मना रहे हैं?

अतः किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति से वैवाहिक सम्बन्घ जोड़ने से पहले विवाहोपरांत धर्म आधारित अपेक्षाओं के बारे में जांच पड़ताल करना ज्यादा उचित होगा। यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि विवाह के लिए धार्मिक रीति रिवाज़ जैसे कि शहादा, बपतिस्मा या सुन्नत का कोई दवाब नहीं होगा। विवाहोपरांत होने वाले बच्चे किस धर्म के अनुयायी माने जाएँ और उनका लालन पालन किस धर्म के अनुसार हो इसका भी आपके साथी अथवा उसके परिवार या समाज से भी कोई दवाब न हो, यह भी पक्का किया जाना चाहिए। धर्म परिवर्तन से संबंधित रस्में जैसा कि निम्न रेखाचित्र में दिखाया गया है, मात्र एक अर्थरहित रिवाज़ नहीं है अपितु यह आपकी अब्राहम-पंथी बनने के लिए स्वीकारोक्ति है। अब एक प्रेमी युगल जो समानता पर आधारित सम्बन्ध में बंधना चाहते है, उनके लिए सुझाव यह है कि वे अपने सम्बन्ध पर और अपने होने वाली संतान पर धर्म का ठप्पा न लगाएँ।


आकृति 1: अब्राहमिक रूपांतरण समारोह (view video)


ऐसा नहीं है कि सारे अब्राहम-पंथी अपने धार्मिक मान्यताओं और रिवाज़ों को अपने साथी पर थोपते हैं, परन्तु सत्य जितना जल्दी पता लगे उतना अच्छा। यहाँ पर यह कहना भी आवश्यक है कि सभी कठिनाइओं के होते हुए भी, एक सफल अंतर-धार्मिक विवाह कोई अतिशयोक्ति नहीं है यदि अपनी धार्मिक मान्यताएं अपने साथी पर ना थोपी जाएँ। कुछ फिल्में जैसे कि ग़दर, जोधा-अकबर और नमस्ते लंदन भी ऐसा ही कुछ सन्देश देती हैं। बॉलीवुड सितारे करीना कपूर और सैफ अली खान एक आदर्श युगल है जिन्होंने धर्म से अलग रहकर क़ानूनन विवाह किया और यह एक प्रशंसनीय एवं स्वागतयोग्य कृत्य है। अगर आपको आपके साथी से ऐसे सम्मान के स्थान पर धर्म त्याग जैसी अपेक्षा मिले तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या आप इस असहिष्णुता का सामना करने को तैयार हैं।

यहाँ यह कहना उचित होगा कि किसी भी सम्बन्ध में पड़ने से पहले एक खुली और साहसिक चर्चा नितांत आवश्यक हो जाती है जिससे कि धार्मिक अपेक्षाओं (विशेष रूप से धर्मान्तरण) जैसे बिंदुओं पर स्पष्टता रहे और निकट भविष्य में इसके परिणामों के बारे में सोचा जा सके। इस तरह के विषयों का शीघ्र हल ना केवल प्रेमी युगल के भविष्य के लिए अच्छा है अपितु यह होने वाली संतानों के लिए भी अच्छा है, क्योंकि दोनों ही व्यक्तियों के परिवार और समाज होने वाली संतान के धर्म को लेकर टकराते रहेंगे। जीवन साथी चुनने से पहले गंभीर सोच विचार निश्चित ही एक दीर्घकालिक वैवाहिक जीवन की पहली सीढ़ी है फिर चाहे वह एक अंतर-धार्मिक विवाह ही क्यों न हो। सबसे महत्वपूर्ण है कि आपको यह सुनिश्चित करना है कि आप अपनी मान्यताओं के अनुसार स्वतंत्रता से जीवन व्यतीत कर सकेंगे और आपकी होने वाली संतान भी इसी स्वतंत्रता की अधिकारी होगी एवं इससे संबंधित आपके साथी या उसके परिवार कि कोई भी इच्छा आपके ऊपर नहीं थोपी जाएगी।

A Chapter from the book Interfaith Marriages: Share and Respect with Equality is posted here. View some of others chapters from the book here.
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